Friday, May 24, 2019

धनकुट्टी के मशीन

नोट:-ये विशुद्ध व्यंग है! इसे सिर्फ के व्यंग्य रूप में लें।

'जाइ छियौ ससुरा जानू बाय-बाय-बाय
नै करिहें  हमरा  खातिर हाय हाय हाय
जीये के पड़तौ तोरा यब हमरा बिन
हाँ-हाँ
जीये के पड़तौ तोरा यब हमरा बिन 
'की तोरा ससुरा में-
तोरा ससुरा में जाइ के जान किनबौ जमीन,हम
ओहिजे चलैबौ धनकुट्टी के मशीन,
तोरा ससुरा में जाइ के जान किनबौ जमीन,हम
ओहिजे चलैबौ आटाचक्की के मशीन....

एक बात और गीत के कई पहलू और अर्थ होते हैं।
तो आइये इसी क्रम में एक गीत में छुपे हुए प्रेम-प्रगाढ़ को देखते हैं।

उपरोक्त पंक्ति में नायक-नायिका जो परस्पर प्रेमी-प्रेमिका है। दोनों के मध्य प्रेमिका के शादी के सँग ससुराल जाने के बाद की संभावित स्थिति पर बेहद भावुक और आँख में आँसू लाने वाले स्तर की चर्चा हो रही है।

चर्चा के क्रम में नायिका यानी प्रेमिका कहती हैं कि 'ऐ जान ये दिन हम दोनों के बीच आजतक चले इस प्रेम कहानी के समाप्ति का दिन है। हे मेरे परम् प्रिय प्रेमी आज मैं तुमको छोड़कर ससुराल जा रही हूं इसीलिए मेरा 'बाय बाय' को स्वीकार करो। साथ ही प्रेमिका को चिंता है कि प्रेमी कहीं इस जुदाई के असर में उसका वो प्रेमी पगला ना जाए सो आगे कह रही है कि 'मेरे जाने के बाद मेरे लिए हाय हाय' मत करना,अब तुम्हें मेरे बिना जीना है सो हे प्रिय जान अपना ख्याल रखना।

अब बातें प्रेमी के बर्दाश्त करने की क्षमता से बाहर जा रहा था सो वो प्रेमिका को बीच में रोकता है और कहता है 'हे मेरी प्राण प्यारी! हमने कभी तुमको देखे बिना अपने जीवन की कल्पना तक नहीं किया है। ऐ जान,तुम्हारी शादी हो गई तो ये तो तय है कि तुम ससुराल जाओगी ही लेकिन इस बात को मान लो कि जैसे किसी जीने के लिए ऑक्सीजन रूपी साँस की आवश्यकता है उसी प्रकार मेरे जिंदा रहने के लिए तुम्हें कम से कम प्रतिदिन तुम्हारा दर्शन अनिवार्य है। हे प्रिय मुझे इसका कोई उपाय नहीं दिख रहा था लेकिन अब मैंने सोचा लिया है कि क्या करना है। ऐ जानू,मैं तुम्हारे ससुराल में थोड़ा सा जमीन खरीदूँगा और फिर वहाँ धनकुट्टी और आटा-चक्की का मशीन स्थापित करूँगा। इससे कम से कम मुझे तुम्हारे पास रहने का अहसास होगा साथ ही किसी न किसी प्रकार से प्रतिदिन तुम्हारे दर्शन भी हो जाएंगे।


लेकिन प्रेमिका को प्रेमी के इस 'कांड' रूपी योजना में घोर खतरा दिख रहा है और वो आगे आग्रह करती है:-

'लेसन मोहब्बत वाला खतम करै जिये तूँ जिये दे न यार रे'
'केहू न जनतौ रोजे कोनो बहाना घर घुमि आइबौ तोहार गे'
'खुजि जेतै पोल हमर हो जइतै डरामा सखे मिलल छै
भतार रे'
'लुच्चा लफुआ के तोरा सासुर में बनाइ के रखबउ हम यार गे'
'करिहें ने कोनो किरियेट राजा सीन-
करिहें ने कोनो किरियेट राजा सीन'
'की तोरा ससुरा में- तोरा ससुरा में जाइ के जान किनबौ जमीन,हम
ओहिजे चलैबौ धनकुट्टी के मशीन-
तोरा ससुरा में जाइ के जान किनबौ जमीन,हम
ओहिजे चलैबौ आटाचक्की के मशीन'

प्रेमी के आटाचक्की लगाने के प्लान को सुनकर प्रेमिका के अंदर डर सा उत्पन्न हो गया है। वो जानती है कि प्रेमधुन में पगलाया हुआ प्रेमी आटाचक्की वाला प्लान को कहीं सच में एक्जक्यूट कर दिया तो उसके शादीशुदा जीवन पर कालातीत का प्रेम जीवन बहुत बुरा प्रभाव छोड़ेगा। वो इस क्रम में प्यार गुस्सा और आग्रह को समाहित करते हुए बोलती है- 'ऐ पगलाए हुए प्रेमी मेरी मजबूरी और स्थिति परिस्थिति को समझो, ऐ जानू अब तुम मोहब्बत के इस लेसन को अब खत्म करो इसी में तुम्हारी और हमारी भलाई है, जाओ तुम भी जियो और मुझे भी जीने दो क्योंकि तुम्हारे जिद की वजह से मेरी जिंदगी में भूचाल आ जाएगी।'

प्रेमी अचानक से बीच में रोकते हुए अपने फैसला के बचाव में तर्क देता है 'हे हमारी नहीं हो सकी पत्नी! तुम चिंता बिल्कुल भी ना करो हमारे इस प्रेम के बारे में किसी को कुछ पता नहीं चलेगा, मैं प्रतिदिन तुम्हारे घर किसी न किसी बहाने तुम्हारे घर घूम आऊंगा,तुम चिंता ना करो जान वहाँ कोई प्रॉब्लम नहीं होगा।'


'अनिल यादव हमर नाम गे छियै धान कूटे यइबौ तोरा गाँव में-(बैकग्राउंड से हल्की आवाज में "त' आ जो न'')
घरवा के आटा पानी सब कुटनी पीसनी कैर देबौ फिरिये के भाव में'
'राइटर सोनू कियै हमरे प' तोहर बैस गेलौ कियै चाव रे-
हो जेतै यारिया बाबू ढेर बदनामी आ जइतै जदि हमर नाम रे- अंतरा प्रियंका कहे प्यार नाही छीन- अंतरा प्रियंका कहे प्यार नाही छीन'
'हे तोरा ससुरा में जाइ के जान किनबौ जमीन,हम
ओहिजे चलैबौ धनकुट्टी के मशीन
ओहिजे चलैबौ आटाचक्की के मशीन'
'ठीक छै,नै मनबै त' आ जइहें' (बेहद दबे हुए आवाज में)

अनबन और ना-नुकर के क्रम में बातचीत को और आगे बढ़ाते हुए प्रेमी अपने प्रेमिका को उसके ससुराल में अपना धनकुट्टी और आटाचक्की के मशीन को स्थापित होने से होने वाले आर्थिक फायदों के बारे में बताता है और कहता है 'हे मेरी शोना बाबु! अनिल यादव नाम है मेरा मैं जब तुम्हारे गाँव धान-गेंहू कूटने-पीसने आऊंगा तो इससे तुम्हें एक और फायदा होगा,बेबी मैं तुम्हारे घर का कुटनी-पीसनी का मुफ्त में कर दूँगा। ऐ जानु! मेरे इस प्रोजेक्ट के बहुमुखी और एक अनेक फायदे हैं। प्लीज तुम मान जाओ और मुझे अपने ससुराल में धनकुट्टी और आटाचक्की का मशीन लगाने का अल्लोवेंस दे दो।'

इतना समझाने के बाद भी नहीं मानने पर प्रेमिका खीझ जाती है। उसका दिमाग भन्ना जाता है और कहती है 'हे प्रियतम राइटर सोनु! (गीतकार का नाम होना जरूरी है इसीलिए ये नाम है,आपलोग अनिल यादव ही समझें) तुम्हें संसार में और कुछ क्यों नहीं दिखता है। तुम्हारा चाव सिर्फ मुझपर ही क्यों बैठा है। तुम क्यों नहीं समझ रहे हो कि जिस मेरा नाम तुम्हारे नाम के सँग आ जाएगा उस दिन ढेर सारा बदनामी हो जाएगा। हे मेरे दिल के टुकड़े मेले छोना बाबु! तुम्हारी जो ये प्रेमिका है 'अंतरा प्रियंका' इससे प्यार मत छिनो इसे बनाकर रखने दो मुझे, मैं तुमसे अंतिम विनती करता हूँ'
इन विनती भावों का प्यार में विक्षिप्त हो चुके प्रेमी पर कोई असर नहीं पड़ता है और वो पूर्व में कहे हुए अपनी बातों को डिट्टो रिपीट करता है 'ऐ पगली बेबी! मैं कुछ नहीं मानने वाला हूँ। मैं तुम्हारे ससुराल में जाकर जमीन खरीदूँगा और धनकुट्टी-आटाचक्की मशीन लगाऊंगा,हे मेरी गोली-मोली बाबु! तुम भी इसे मान लो।'

लाख मना करने और मनाने के असफल प्रयास के बाद प्रेमिका प्रेमी के सामने समर्पण में ही अपनी भलाई समझती है और बेहद हल्के और दबे हुए आवाज में ये कहते हुए इस मामले का पटाक्षेप करती है कि 'ठीक है मेले गोलु-मोलु-
नहीं मानोगे तो आ जाना ससुराल मेरे खरीद  लेना जमीन
फिर लगा लेना अपने धनकुट्टी और आटाचक्की का मशीन'

Open letter to Kirti Azad


श्रीमान सांसद कीर्ति आजाद जी, जय मिथिला!
कल मैंने आपके एक गैरजिम्मेदाराना और आपत्तिजनक बयान के संदर्भ में आपको टैग करते हुए एक पोस्ट लिखा था। अच्छा लगा कि आपने वहाँ कमेन्ट कर के जवाब दिया और अपना पक्ष रखा। निश्चित तौर पर मैं इससे प्रभावित हुआ हूँ।
सबसे पहली बात की मैंने वह प्रश्न एक संगठन जो समस्त मिथिला क्षेत्र के विकास के लिए संघर्ष के रास्ते को चुनते हुए पिछले 4 साल से प्रयत्नशील है उस संगठन का एक जिम्मेदार पदाधिकारी और अपने गांव,क्षेत्र,समाज का एक जिम्मेदार युवा होने के नाते पूछा था। अतः आपके जवाब देने का लहजा आधिकारिक होना चाहिए था जो कि नहीं था।

खैर..
आपने अपने उक्त बयान का खंडन इस भावार्थ के सँग किया कि मैंने कहा था कि ''ये मेरे कार्यक्षेत्र में नहीं आता,मैं बड़े स्तर का नेता हूँ,मैं संसद में कानून बनाने के लिए और केंद्र सरकार के योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए हूँ,आप नीचे स्तर के नेता से इस विषय पर बात करिये,मैं अपने स्तर से प्रयास करूँगा''।
उक्त विषय पर जब मैंने रिकन्फर्मेशन के लिए पत्रकार महोदय से संपर्क किया तो उनका कहना था कि आपने जो और जितनी बातें कही है उतनी बातें तो हुई ही नहीं है।
उनके अनुसार उन्होंने जब आपसे इस विषय पर सम्पर्क किया तो आपने कहा कि ''ये मेरे स्तर का काम नहीं है, आप विधायक से संपर्क करिये, ये MP के लेवल का काम नहीं है, आपलोग राज्य सरकार से तो कुछ पूछते नहीं हैं और सिर्फ MP के पीछे लगे रहते हैं''!

यहाँ तक तो फिर भी ठीक था लेकिन आगे उन्होंने जब आपसे पूछा कि आगे लोकसभा चुनाव है तो क्या आप उनलोगों से मिलकर उनकी नाराजगी दूर करने का प्रयास करेंगे? इसपर आपने कहा कि ''उन्हें नहीं देना वोट तो नहीं दे,मैं नही जाऊंगा वहाँ,किसे पड़ी है वोट की''।
नोट:-इस बात का प्रमाण कॉल रिकॉर्डिंग है।

खैर इस बात से आगे बढ़ते हैं कि आपसे क्या पूछा गया था और आपने क्या जवाब दिया था। इस मुद्दे को छोड़ते हैं। अब मैं आपके बातों को ही कोट करता हूँ आपका कहना है कि आप संसद में कानून बनाने के लिए और केंद्र सरकार के योजनाओं के क्रियान्वयन करने के लिए हैं ना कि इन छोटे मोटे कामों को करने के लिए तो जरा आपके ही इन बातों को आधार मानकर इस बात को परखा जाए कि आपने इन कानूनों का निर्माण कर और योजनाओं का क्रियान्वयन कर दरभंगा को विकास के किन पैमानों पर खड़ा उतार पाया है। आपने अपने प्रशस्ति गान के लिए विभिन्न विकास कार्यों का उल्लेख किया है।
तो जरा आपके ही इस विकास कार्यों के दूसरे पहलू पर नजर डालते हैं।

श्रीमान क्या प्रयास किए हैं आजतक कि दरभंगा में नए-नए उद्योग धंधे लगे? क्या प्रयास किए हैं यहाँ के औद्योगीकरण के लिए? क्या प्रयास किए हैं कि यहां बंद पड़े सभी पुराने उद्योग धंधे उद्योग धंधे का रिवाइवल किया जाए और उसे फिर से शुरू किया जाए? क्या प्रयास किए हैं कि दरभंगा के लोगों को दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में जननायक,जनसाधारण,कर्मभूमि जैसी ट्रेनों में भेड़ बकरियों की तरह लदकर दिल्ली मुंबई पंजाब हरियाणा जैसे शहरों में धान काटने,धान रोपने,गेहूं काटने,सब्जी बेचने,वॉचमैन का काम करने,रिक्शा खींचने,ड्राइविंग करने जैसे काम ना करना पड़े? बल्कि वो अपने गांव,अपने समाज में अपने मां-बाप,बच्चे-बीवी के संग रहकर सपना जीवन यापन कर सके?
श्रीमान आप जिस दरभंगा का प्रतिनिधित्व करते हैं जरा जाकर मिलिये उस क्षेत्र के लोगों से पंजाब में जहां पर वह खेतों में धान काट रहे,गेहूं काट रहे हैं। जाकर मिलिये उनसे दिल्ली के सब्जी मंडी में जहां वह अपनी दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में ठेले लगाकर सब्जी बेच रहे होते हैं,मिलिये उनसे दिल्ली के उन सड़कों पर जहां वह अपने दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में हाथ रिक्शा खींच रहे होते हैं,घूमिये मुंबई की उन सड़कों पर जहाँ वह दो वक्त के रोटी के जुगाड़ में अपने घर परिवार से 2000 किलोमीटर दूर ऑटो रिक्शा चला रहा होता है,घूमिये मुंबई के होटलों में जहां वो वेटर की नौकरी करता है,जहाँ वो किसी सेठ का कार चला रहा होता है।

श्रीमान ऐसा क्यों है कि हमारे क्षेत्र के लोग पैदा होने के साथ ही इस बात को अपने दिलो दिमाग में बैठा लेते हैं कि बड़ा होकर यदि वह अच्छी शिक्षा ग्रहण करते हैं तो अच्छी नौकरी के लिए या अगर अच्छी शिक्षा नहीं ग्रहण कर पाते हैं तो जीवन यापन के लिए अर्थात परिस्थितियां कैसी भी हो उनको पलायन करना ही पड़ेगा। तू कि उनको पार के के उनको पार के के गांव भर समाज में उनके दरभंगा में आकर उनके जीवन यापन के लिए रोजगार का कोई व्यवस्था नहीं है।
यदि लोगों के दिलों दिमाग में यह बात नियति बन कर बैठा हुआ है तो उसके जिम्मेदार कौन है?
कौन समाप्त करेगा इसे?
हमें तो इस प्रश्न का जवाब चाहिए!

श्रीमान आपने कहा आप कानून बनाने के लिए हैं  हमें भी तो आपसे लीक से हटकर ऐसे कानून बनाने की ही आशा है जिससे यहाँ की मूलभूत समस्याएं दूर हो जाए।

श्रीमान कानून ही तो बनाने की आवश्यकता है डीएमसीएच के कुव्यवस्था के लिए,कानून ही तो नहीं बन रहा डीएमसीएच के एनआईसीयू में एक बच्चे के चूहे के कुतर कुतर कर काट के जान ले लेने जैसे घटनाओं को रोकने के लिए,कानून ही तो नहीं बन रहा दरभंगा में वर्षों से नियति बनकर जमे हुए जाम की समस्या को समाप्त करने के लिए,कानून ही तो नहीं बन रहा दरभंगा के गली गली में सड़े हुए कचरे और पानी से भरे हुए महामारी फैलाने को तैयार बजबजाती नालियों के लिए।

श्रीमान कानून ही तो नहीं बन रहा है कि दरभंगा जिला के घनश्यामपुर प्रखंड अलीनगर प्रखंड किरतपुर प्रखंड मनीगाछी प्रखंड,तारडीह प्रखंड,कुशेश्वरस्थान पश्चिमि प्रखंड कुशेश्वरस्थान पूर्वी प्रखंड बहादुरपुर प्रखंड हायाघाट प्रखंड हनुमाननगर प्रखंड इन सभी प्रखंडों में से किसी भी प्रखंड में एक भी संपूर्ण डिग्री कॉलेज नहीं है इन चीजों पर। कोई तो बनाए कानून जरा इन चीजों पर भी।

श्रीमान कानून ही तो नहीं बन रहा है उन किसानों के प्रोत्साहन के लिए जो आज किसानी छोड़ने के कगार पर हैं। कानून ही तो नहीं बन रहा है कि कैसे बाढ़ का स्थाई समाधान हो,कैसे सुखाड़ का स्थाई समाधान हो,कैसे गाँव-गाँव स्टेट बोर्डिंग लगवाया जाए,कैसे सिंचाई का समुचित व्यवस्था हो,कैसे उनको खाद बीज  उचित मूल्य पर  आसानी से उपलब्ध हो। कोई तो बना दे हमारे यहाँ के किसानों के कल्याण के लिए कानून और कर दे उसका क्रियान्वयन क्यों नहीं हो रहा है ऐसा?

महाशय यदि कोई कानून किसी क्षेत्र के सामान्य लोगों के जीवन स्तर में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता, उनके पलायन को नहीं रोक सकता,उनके रोजगार का व्यवस्था नहीं कर सकता,उनके स्वास्थ्य व्यवस्था को सुदृढ़ नहीं कर सकता,उनके लिए डिग्री कॉलेज का व्यवस्था नहीं कर सकता,उनके विश्वविद्यालय के हालात में परिवर्तन नहीं कर सकता,उनके कॉलेजों में प्रोफेसर की बहाली नहीं कर सकता,उनके यहां उद्योग धंधा नहीं लगवा सकता क्या मतलब है उस कानून का?
नहीं चाहिए हमें ऐसा कानून और ऐसा कानून बनाने वाले लोग!

श्रीमान आपस में आरोप-प्रत्यारोप और एक दूसरे पर जिम्मेदारी फेंकने से बाहर निकलिए। वह दिन दुनिया समाप्त हो चुका है हम मिथिलावादी मिथिला स्टूडेंट यूनियन के लोग हैं जो अब आप लोगों से प्रश्न और हिसाब पूछेंगे इन्हीं चीजों पर जिसका शुरुआत आज एक गाँव से हुआ है। आपको इसी प्रकार के प्रश्न के साथ मिथिलावादियों का फौज हर गांव के हर मोहल्लों गांव के हर मोहल्लों में हर मोड़ पर खड़ा मिलेगा।
इन प्रश्नों का जवाब ढूंढ कर रखिए यह सभी प्रश्न पूछे जाएंगे प्रश्न पूछे जाएंगे हर एक सांसद-विधायक से और चुनाव में वोट मांगने के लिए आने वाले हर एक दल के प्रतिनिधि से फिलहाल अभी के लिए इतना ही ।

जय मिथिला
जय जय मिथिला

Friday, April 13, 2018

बलात्कारों पर होने वाले आंदोलन सैद्धांतिक विरोध

कुत्सित मानसिकता को दुर करना किसी सरकार-प्रशासन के बस की बात नहीं है(बलात्कारों पर भी राजनीति करनी हो तो अलग बात है।) इनके कार्यक्षेत्र का भी एक सीमीत दायरा होता है। इनके भी कुछ सीमाएं होते हैं मसलन हर स्थान पर पुलिस खड़ा नहीं रह सकता सरकारें सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती। 

परन्तु यदि दोषी पकड़ से बाहर है या कोई उसे बचाने की कोशिश कर रहा है तो ये सत्ता और प्रशासन की असफलता है।

यद्यपि मैंने इन बड़े-बड़े घटनाओं पर विचार प्रकट करना छोड़ दिया है। क्योंकि ऐसा करना मुझे बेहद औपचारिक और ढकोसला लगने लगा है। इसीलिए अब देश स्तर के बड़े बड़े घटनाओं और कोई राय नहीं देता। लेकिन अबकी बार रहा नहीं गया। जहाँ तहाँ देख रहा हूँ लोग बिना सिर पैर की बातें कर के सरकारों को बलात्कार का जिम्मेदार ठहराये जा रहे हैं। खैर चन्द शब्दों के समहू का सहारा लेकर और चुँकि फेसबुक इत्यादि सोशल मीडिया पर सिवाय कुछ समय और नाममात्र खर्च के और कुछ लगता नहीं अतः ऐसा करना आसान है।

यद्यपि मैने ऊपर हीं लिख दिया है कि सरकार और प्रशासन का फेल्योर तब माना जाना चाहिए जब दोषी पुलिस के हाथ से बाहर हो या सत्ता के बल पर किसी अपराधी को बचाने षड्यंत्र रचा जा रहा हो। अतः आप आश्वस्त रहें किसी को डिफेंड करने जैसी कोई बात नहीं है।

मैं तो कहना चाहता हुँ इस समाज के लोगों से आप से, खुद, से सबों से की सिर्फ सैद्धांतिक विचारों के बल से व्यक्ति या व्यक्तियों का समुह जिसे समाज कहते हैं अस्थायी या मौसमी रूप से कितना भी आंदोलित-उद्वेलित हो जाए बलात्कार नहीं रुकनेवाला है। यदि ऐसा संभव होता तो निर्भया कांड के बाद देश में कोई बलात्कार नहीं होता।

बलात्कार एक सामाजिक बुराई है जो किसी घृणित हवसी और समाज के कलंक के द्वारा किया जाता है। और वो व्यक्ति दुसरे ग्रह से नहीं आता। वो आपके हीं बगल का जो सकता है, आपका पड़ोसी हो सकता है, आपके घर का हो सकता है, आपका सम्बन्धी हो सकता है।

क्या आपने कभी सोचा है कि सभी व्यक्ति गलत को गलत कहते हैं, यानी हर व्यक्ति बलात्कार को घृणित अपराध मानता है और ऐसा करने वाले के लिए फाँसी मांगता है, चोरी-डकैती को गलत मानते हैं और ऐसे लोगों को समाज में मनुष्य के नाम पर एक धब्बा मानते हैं।

अब जबकि सभी इतने आदर्शवादी विचार के पोषक हैं तो प्रतिदिन होने वाला बलात्कार और चोरी-डकैती कर के कौन चला जाता है! कहीं एलियन तो नहीं आ कर इन घटनाओं को अंजाम देकर वापस उड़नतश्तरी पर अपने ग्रह को लौट जाते?

नहीं महाशय ऐसी कोई बात नहीं है वो वहीं होता है आपके बीच का। वह भी इन चीजों का व्यापक आलोचना करने वाला भी हो सकता है। अतः चिंतन इस बात पर करने की आवश्यकता है कि यदि कड़वा सच यहीं है कि वो बलात्कारी भी इसी समाज का हिस्सा रहता है तो ऐसा हो क्यों रहा है? वो इससे पहले तो बड़ा अच्छा और चरित्रवान व्यक्ति प्रतीत हो रहा था!

समाज को व्यवहारिक रूप से इन समस्याओं का समाधान ढूँढना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से यदि ऐसा संभव हो पाता तो लोगों के सोशल मीडिया पर लिखे गए इतने ज्ञानवर्धक और आक्रोश से भरे सैद्धांतिक पोस्टों के बाद शायद कोई बालात्कार नहीं होता!

लोगों के जीवनशैली में व्यापक बदलाव हुआ है। इंरनेट के माध्य से इच्छित परिणाम पाने के अनेक उपाय हैं। जहाँ चन्द सेकेंड में व्यक्ति हर वो चीज देख सुन पढ़ सकता है जो लोगों के नजर में बलात्कार का एक कारक माना जाता है। आज के तारीख में लोग समाज में आधुनिकता के बैनर तले इन चीजों को बेहद सहजता से लेते हैं। ये निश्चित रूप से सामाजिक परिवर्तन का द्योतक है।

परंतु हर परिवर्तन अपने साथ कुछ बुराइयां लेकर आती है। जैसे लोगों के जीवनशैली में सामान्य रूप से परिवर्तन समाहित हो जाता है उसी प्रकार लोग उसमें समाहित बुराइयों के समाधान पर कभी ध्यान ही नहीं देते हैं।

यदि पुराने समय में हमारे पुर्वज अपने बच्चों का वैवाहिक जीवन कम उम्र में शुरू करवा देते थे तो ये उनका परिस्थितिजन्य निर्णय हुआ करता था। ये शायद उनके दूरदर्षिता का प्रतिफल हुआ करता था।

यद्यपि वार्तमानिक परिपेक्ष्य में यह सम्भव नहीं हो सकता है और यहाँ तक कि इस विषय पर बात करने वाले को सैद्धान्तिक रूप से प्रगाढ़ विद्वजन मूर्ख तक साबित कर देंगे। परंतु यदि वास्तव में कुछ बदलाव चाहते हैं इन घटनाओं में तो इस समाज प्रबुद्धजन को व्यवहारिक रूप से सोचकर कुछ सार्वभौमिक निर्णय लेना पड़ेगा। जो समान रूप से हर समाज के हर व्यक्ति के लिए सहजता से स्वीकार्य हो।

यदि ऐसा नहीं हो सकता तो बलात्कार शब्द को समाज में हर व्यक्ति को सहजता से सुनने पढ़ने झेलने के लिए तैयार होना पड़ेगा। और हाँ इन सैद्धांतिक बातों से बलात्कारों में कोई गिरावट नहीं आने वाला है। लिख लें ये आज भी हुआ कल भी हुआ था और कल भी होगा। किसी सरकार प्रशासन के बस की बात नहीं है इसको रोक लेना।

(उपरोक्त लिखा गया सभी बातें मेरा नितांत व्यक्तिगत विचार है जिसे माननीय को कोई व्यक्ति बाध्य नहीं है अर्थात मानना है तो मानें नहीं मानना है तो सीताराम सीताराम करें)

जी सियाराम
जय मिथिला

Sunday, September 10, 2017

प्रद्युम्न हत्याकांड-दोषी कौन - प्रशासन या मानवता

             जिम्मेदार कौन शासन या मानव
हत्या किसी का हो चाहे दरभंगा के मनोज चौधरी का चाहे मधुबनी के नैंसी झा का या फिर गुड़गांव में प्रद्युम्न ठाकुर का, हत्यारा कोई हो, घटना हमारे देश के किसी हिस्से का हो पर मुझे पता नहीं क्यों हर बार ऐसा लगता है की हर हत्या-बलात्कार के साथ जनसमूह का ध्यानाकर्षण उस प्रत्यक्ष समस्या के तरफ नहीं जा रहा जो वास्तव में इन घटनाओं का कारक है । जो है गिरता हुआ मानवता,मनुष्यता और पशुता में बढ़ती समानता,एक दुसरे के प्रति संवेदनहीनता। हर बार जिस शासन-प्रशासन,सत्ताधीश को एक झटके में उस हत्या का जिम्मेदार मान लेते हैं क्या वहीं सही है ? क्या इन अमानवीय कृत्यों को सुधारना किसी शासन व्यवस्था सत्ताधीश से सम्भव भी है ?

बलात्कार कल भी हुआ आज भी होगा कल भी होगा ,हत्याएँ कल भी हुआ आज भी होगा कल भी होगा पर क्या इन हत्याओं बलात्कारों को रोकना मात्र इस शासन-प्रशासन व्यवस्था से सम्भव है ?
जब आप पुर्ण व्यहारिक हो के सोचेंगे तो आपको आभास होगा की वास्तव में इस शासन-प्रशासन व्यवस्था की आवश्यकता तब हीं पड़ता है जब कोई मानव पशुता दिखाता है।
अब सवाल है कि हम शासन व्यवस्था पर तो एक झटके में दोष मढ़ देते हैं पर कभी ये सोचते हैं कि इस व्यवस्था पर सवाल खड़ा करने की नौबत क्यों आया और वो नौबत ही नहीं आए इसके लिए कितने लोगों ने आवाज बुलंद किया है ?
सभी समस्याओं का जड़ मनुष्य में मनुष्यता का पतन और पशुता का वर्धन है। इन्हीं अमानवीय अवगुणों के कारण हमें किसी तथाकथित शासन -व्यवस्था की आवश्यकता होती है ।

धरातल पर लौटिये हत्या मनोज चौधरी का भी हुआ पेट्रोल डाल कर जिन्दा जला कर ,हत्या नैंसी झा का भी हुआ ,हत्या एकाध दिन पूर्व प्रद्युम्न का भी हुआ ।
एक-एक हत्याकांड को देखिए क्या किसी घटना में आप पुलिसिया-व्यवस्था,न्यायिक व्यवस्था, सत्ताधीश के कार्रवाई से संतुष्ट हैं ?

मनोज चौधरी हत्याकांड का न्यायालय में दलालों के द्वारा लीपापोती हो चुका है ,नैंसी हत्याकांड में पुलिस जाँच में सब कुछ उतना हीं स्पष्ट है जितना आरुषि और जेसिका हत्याकांड में स्पष्ट हुआ , प्रद्युम्न हत्याकांड के लिए लोग हरियाणा सरकार,स्कूल प्रशासन को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। निश्चय हीं लोगों का गुस्सा न्यायव्यवस्था के प्रति ,पुलिस के कारवाई के प्रति,हरियाणा सरकार के प्रति या फिर स्कूल प्रशासन के प्रति जायज और स्वाभाविक है लेकिन इन सभी घटनाओं के प्रति इस व्यवस्था की आवश्यकता तब पड़ी है जन कोई मानव एक मानव के लिए दानव बन गया यहीं सच्चाई है सम्पुर्ण सच्चाई।
अब सभी हत्याकांड में एक मिनट के लिए शासन-व्यवस्था के अभी तक हुए कार्रवाई जो सही है या गलत को भुल जाइये और ये सोचिए -

मनोज चौधरी को दिन दहाड़े पेट्रोल डालकर जिन्दा जलाने वालों के मन में कभी ये विचार आया कि मैं जिसे जिंदा जला रहा हुँ वो भी इसी हाड़ मांस के शरीर का मालिक है , आखिर एक मनुष्य किस हृदय से किसी मनुष्य को यूँ पेट्रोल डालकर जिंदा जला सकता है । आखिर किसी मनुष्य के दिल में एक मनुष्य के लिए इतनी क्रूरता आ कहाँ से जाता है ? क्या ये भी मानव हीं हैं ? क्या हर दुकान पर एक पुलिस का ड्यूटी लगाना सम्भव है ?

नैंसी झा की हत्या किसने किया ये आजतक स्पष्ट नहीं हुआ जिसके लिए हम शासन व्यवस्था को दोषी ठहरा रहे हैं ठहराना भी चाहिए लेकिन क्या कभी आपने ये सोचा है कि जिन हाथों ने एक 12 साल के मासूम बच्ची की इतनी निर्ममता पूर्वक हत्या कर दिया उन हाथों में इतनी क्रूरता कहाँ से आ जाता है एक मासुम बच्ची के लिए ? क्या हर मासुम के सुरक्षा के लिए एक पुलिस को बहाल कर पाना सम्भव है ?

गुड़गांव में 8 वर्षीय प्रद्युम्न ठाकुर जिसकी हत्या रेयान इंटरनेशनल स्कुल के ड्राइवर ने कुकृत्य में असफल होंने पर कर दिया क्या ऐसे लोग मानवता नाम मात्र के लिए खतरा नहीं है ,उस व्यभिचारी के मन में ये एक बार भी क्यों नहीं आया कि जिस बच्चे की हत्या वो इतना क्रूरता से करने जा रहा है वास्तव में उसे उस क्रुरता का आभास भी नहीं है वो इस बात से परिचित भी नहीं है कि दुनिया में इस प्रकार के लोग भी होते हैं और इस दुनिया की कुंठित मानसिकता इस हद तक भी जा सकता है। आखिर कोई व्यक्ति इतना बड़ा दानव कैसे बन सकता है कि एक 8 साल के अबोध बच्चे की हत्या इस प्रकार से करता है कि उसके गर्दन ,कान ,सांस नली ,और ग्राह नली तक को काट कर उस बच्चे को इस रूप में ला देता है कि देखने मात्र से किसी का रुह काँप जाए ।
वास्तव में समाज को आवश्यकता है एक मानसिक क्रांति की जिसमें मनुष्य को जीवन का मोल का आभास हो ,जिसमें व्यवहारिक जीवन में एक दूसरे के प्रति प्रेम केे महत्व का आभास हो, जिसमें बच्चों को समाज का ,देश का भविष्य होने का आभास हो ना की अपनी कुंठित मानसिकता के लिए सॉफ्ट टारगेट का । यदि ऐसा नहीं होता है तो आप ऐसा उम्मीद भी नही करिये की हर जगह की सुरक्षा हमारा शिथिल शासन-व्यवस्था सुनिश्चित कर लेगा ये ढकोसला लगता है ।

Wednesday, July 26, 2017

"बाबाक संस्कार" -एक बार फिर से ..


पूरी कहानी को पढ़ेंगे तो आपको मनगढंत और काल्पनिक लगेगा हालांकि मुझे इससे कोई ऐतराज नहीं है इस प्रकार की कहानियां काल्पनिक कथाओं में हीं तो आज तक पढ़ा होगा आपने ,पर मेरा विश्वास करिये बाबा को अभी तक मुखाग्नि भी नहीं मिला है :-

गाँव के बाबा दो साल से मौत के लिए जंग लड़ रहे थे क्योंकि जिंदगी के लिए जँग किसके लिए लड़ते उनके परिजनों को उनकी जरूरत सालों पहले समाप्त हो चुका था ,आज अन्ततः जिन्दगी की जंग हार गए और खुद जीतकर इस समाज के वार्तमानिक परिपेक्ष्य पर और पशु समूह रूपी मुखड़ों के ऊपर अनगिनत तमाचे लगा कर गए ,उसको उसके वास्तविक औकात से परिचित करवा कर गए ।

 वो तो अधिक से अधिक चार-पाँच साल और अपने जीवन को जी सकते थे यदि उन्हें उचित देखभाल ,पारिवारिक स्नेह और दवा दारू मिलता ,पर उन्हें तो माध्यम बनना था समाज को उसके इस गंदी असलियत से परिचित करवाने का सो भगवान ने भी सहायता किया और आज सुबह अपने कष्टमय जीवन से मुक्ति प्रदान कर दिये बाबा को और बाबा सिधार गए ।

अब आप जब उस सड़क से निकलेंगे तो सड़क के किनारे उनके उस शमशान नुमा दरवाजे पर बाबा के अधढ़के शरीर के लिपटे हुए कपडों में से गुह्य अंग नहीं दिखेंगे ,उनके सूजे हुए सर्वांग शरीर नहीं दिखेंगे ,उनके हृदय विदीर्ण करने वाला कराहने की आवाज नहीं सुनेंगे ,उनके 'पानी माँगने' की शर्मनाक स्थिति से दो चार नहीं होना पड़ेगा,रेअर्ली उनके पास खड़ी रहने वाली औरतों का समूह नहीं देखेंगे जो उनके हाल को देखकर उनके कलामी बेटों को 'आशीर्वाद' देती रहती थी  । उनको देखकर आपका में से कुछ लोगों का खून खौल के जो थोड़ा सा कम हो जाता था वो खून अब नहीं जलेगा और इसीलिये आपके शरीर से खून की मात्रा कम भी नहीं होगा क्योंकि अब बाबा नहीं रहे । वो   जो आप उनके हाल को देखकर अत्यंत दुःखी हो जाते थे आप का ये दुख उनसे नहीं देखा जाता था और इसीलिए वो देह त्याग दिए ।

3-4 साल पहले उनकी जीवन संगिनी उनका साथ छोड़ चल बसी लगभग इसी गति को उन्होंने ने भी प्राप्त किया था ,लगभग इसलिए क्योंकि उनके लिये बाबा थे । बाबा बड़े कर्मठ थे आज से दो साल पूर्व तक जब वो चलने-फिरने में सक्षम थे तो खाना भी बना लेते थे वहीं कोई 80 साल उम्र होगा उनका । पर जब वो खाना बनाने लायक नहीं बचे तो गाँव के एक जागरूक व्यक्ति ने महीनों उनको खाना पीना का व्यवस्था किया । बीच-बीच में कई बार जब कुछ लोगों से हालात बर्दाश्त नहीं होता था तो अपने खर्चा से बाबा का इलाज भी करवाए पर बाबा ठहरे बाबा ,सो थोड़ा सा भी उठ के खड़ा होने लायक बनने पर बाबा सीधे चल पड़ते थे मेरे घर के पीछे वाले बारी झारी की देखने अपने बटाईदार को उचित निर्देश देने ,अपने गाछी बिरछी में पेड़ों के संख्या गिनने कहीं किसी पेड़ की संख्या कम तो नहीं है ,किसी पतखरनी ने नव गोछली में से टुन्नी तो नहीं तोड़े आदि आदि जानने को । पर काश कोई बारी झारी , कलम-गाछी उनके काम आ पाता । पर हाँ वो पेड़ जिनका एक टुटा हुआ डाली बाबा को विचलित कर देता था आज आखिरी समय में उनके काम आएगा उनके दाह संस्कार में ।

बांकी वो सारे जमीन जायदाद ,कलम गाछी बाबा के उन्हीं कलामी चारों बेटों का उसी बाप का दिया हुआ सम्पति है जिस बाप को वो जीवन के सबसे कठिन परिस्थितियों में एक वक्त का समुचित खाना नहीं खिला पाए । वो कभी उस उस बाप का इलाज नहीं करवा पाए जिस बाप नें अपना पेट काट कर उन्हें उस स्तर पर पहुंचाया जिस स्टैंडर्ड में बाबा उनके लिए फिट नही बैठ रहे थे ।

आप को लग रहा होगा कि बाबा के सारे बेटे कोई जिन्दगी काटने वाला जॉब कर रहे होंगे और उस जिंदगी काटने वाले जीवनयापन में से इतना नहीं बचा पाते होंगे कि बाबा के लिए कुछ व्यवस्था कर पाते ,वो ऐसे झुग्गियों में रहते होंगे जहाँ वो बाबा को एडजस्ट नहीं कर सकते थे । जरा रुकिये क्या सोचे जा रहे हैं ? इससे पहले कि आप कुछ और सोच ले मैं बता दूं  की बाबा के सारे बेटे गवरमेंट जॉब करते हैं ,सभी लगभग बीसीयों साल से फुल फैमिली शहरों में रहते हैं  सिवाय एक छोटी बहु के ,और सरकारी नौकरी के नाम पर कोई के नाम पर कोई चपरासी गिरी नहीं करते हैं सभी स्तर के पदाधिकारी हैं कोई रेलवे के के सिग्नल सेक्शन में सीनियर इंजीनियर हैं तो कोई भूमि विभाग के बड़े अभियंता है एक किसी निजी क्षेत्र की कम्पनी में बहुत बड़े पदाधिकारी है ।

उनके कुछ बेटा बेटियां विदेशों में भी पढ़ते हैं । शहर में इस कदर अभ्यस्त हो गए हैं कि उनके बेटों की शादियाँ भी वहीं होते हैं गांव से कोई सपंर्क नहीं । हाँ पर कभी कभार साल में एकाध बार अपने निजी गाड़ी से गाँव आते हैं ,गाँव के पैतृक संपत्ति के बारे में अधितर लोगों का सोचना होता है कि अगर समय समय पर उसका देखभाल नहीं किया जाए तो फलां आदमी हड़प सकता है वो भी शायद कुछ इसी प्रकार के सोच के संग आते होंगे । पर कभी तीसरे दिन गाँव मे नहीं देखा उनको । खैर अब पूरे कहानी को पढ़ कर आप सोच रहे होंगे कि कुछ नहीं किया इन्होंने अपने माँ बाप के लिए ,आप गलत सोच रहे हैं माँ के लिए भी पूरे परम्पराओं के संग श्राद्ध कर्म किया था इन्होंने ने पंडीजी की खूब दक्षिणा दिए खूब भोज भात भी किये जिसके लिए खूब जयजयकार हुआ था इनका ।

अब पिताजी का भी करेंगे पूरे तत्परता के सँग पिताजी के दाह संस्कार होगा ,हो सकता है अधिकतर पुत्रजन फ्लाइट से गाँव आएं । पूरे विधि विधान के सँग बाबा का श्राद्ध होगा ताँबा और पीतल के बड़े बड़े बर्तन पंडीजी को दान दिया जाएगा , खूब बड़ा भोज होगा ,'हस्ति और नाम' के हिसाब से रसगुल्ला का जयवारी भोज भी कर सकते हैं ,गाँव को कम से कम तीन दिन तो खिलाएंगे हीं खूब जयजयकार होगा बाबा के श्राद्ध में इतने ब्राह्मण खाएंगे तो बाबा के आत्मा को भी पूरी शांति मिलेगी ही बाबा स्वर्ग को जाएंगे । और क्या चाहिए था बाबा को अपने उस बेटों से जिनके पढ़ाई का खर्चा कई बार उन्होंने ने घर के चूल्हे को ठंढा रख कर किया था ।

(उपरोक्त कहानी किसी व्यक्ति विशेष के ऊपर नहीं लिखा गया है, यदि यह कहानी किसी व्यक्ति से मिलता जुलता है तो यह संयोग है। कहानी पूरे समाज की सच्चाई को प्रदर्शित करने हेतु लिखा गया है। कहानी में समाज के वर्तमान स्थिति और कुछ आवश्यक काल्पनिकता को शामिल किया गया है)

बाबा की जय हो !!
उनके बेटों की जय-जयकार हो !!

Friday, April 7, 2017

'प्रतीक्षित भेंट' मैथिली में -Dhiraj kumar jha

मिथिलांचलक परिवेश में कतौ 'सरप्राइज' शब्द सूटेबल होई (ककरो वस्तुरुपी गिफ्ट देबय चाहै छी त ओ अपवाद छैक )। इ बात त हमरा पूर्वे सं बुझल छल आई पूर्ण रुपेन आश्वस्त केला हमर फेसबूकिया अराध्य प्रवीण जी 'सर'प्राइज दय के ।ओना त कतेको फेसबूकिया मित्र छैथ जिनका सं प्रत्यक्ष दर्शनक प्रतीक्षा में हम सालों स छी। मुदा हिनका सं भेट करबाक इच्छा किछु बेसिये अई। कै बेर भेंट करैत करैत चुकलौं हं ।काल्हुक घटना देखियौ समय लगभग 12:40 हम किछु आवश्यक काज स गामसं तीन-चैर किलोमीटर दुर रुपनगर में रही ।"praveen ji fb'' अही नम्बर सं फ़ोन अबैत अछि नमरे देख हम हिय हारलौं ।मोने मोने बडबडाइलौं -'करिह बड़का भेंट गेल एगो और मौका ' .फोन रिसीव केलों आवाज अबैछ "हेलो धीरज बजै छि ?हम प्रवीण"(एहने शब्दक इच्छा हम पूर्व में केने रही पूरा केलैन) .हम सकपकैत आवाज म 'हहं गोर लगै छी '.। शुरू भेलै सब बात हमरा अपेक्षा अनुसार(सिवाय एकरा जे भेंट होइतै )-"कतय छी? ?अहाँ के गाम मं छी जयंतीपुर रोड में हमर भाई सेहो संग छैथ " ।घोर निराशा के भाव में डूबकी लगबैत कहलियैन गाम सं किछु दूर रूपनगर में छी ।चूँकि बहुत व्यस्तता में छैथ से हमरा पूर्वे सं बुझल छल तैं एहेन आग्रह नै कय सकलहूँ जे 'रुकु ओतय 15-20 मिनट '। खैर दूई चैर मिनट मिनट केर बातचीत में आशवस्त केलेन जे भेटै छी रैब दिन । एकटा प्रतीक्षित भेंट किछ आओर दिनक प्रतीक्षा में बदली गेलै ।आ एकबेर आओर पुराण कहबी 'इन्तेजार की घड़ी लम्बी होती है'चरितार्थ भेलै।।वास्तव मं फेसबुक ओ स्थापित समाजक रुप लेने जा रहल छै जतुक कतेको काका भैया चाचा सं ओहि समाजक भाय भतीजा प्रत्यक्ष भेंट करय चाहैत छैक।।रोमियो सबहक सन्दर्भ में इ बात किछु बेसियन्त सूटेबल होइछ "आह इ मोहतरमा जं कहियो राज कैंपस या श्यामा माई मंदिर में भेट जैतैक" ।।.खैर हम त कुशल मंगल रहब त इ प्रतीक्षित भेंटक प्रतीक्षा रैब दिन समाप्त भ जेतैक । #प्रतीक्षितभेंट

 08/04/2017

Wednesday, March 29, 2017

मिथिलांचल में कीर्तन भजन की स्थिति

मेरे गाँव दाथ में पिछले 10 मार्च को रामकृष्ण नामधुन नवाह आरंभ हुआ।लगभग 10 हजार जनसँख्या मात्र उस पुवारीटोल का है जहाँ मैं रहता हूँ बांकी 7 टोल का है पूरा दाथ । ये नवाह लगभग 10 साल पहले प्रत्येक वर्ष आयोजित होता था ।और सारे ग्रामीण मिलकर तन मन धन से सहयोग कर के इस कार्यक्रम को आयोजित और संचालित करते थे । परन्तु जब उपरोक्त सभी सहयोग और एवं लोगो की दिलचस्पी कम हो गया तो ये कार्यक्रम 10 साल तक बंद रहा ।इस बार कुछ सक्रिय भजन कीर्तन अनुरागियों जैसे स्वयं मेरे पिताजी ,लखन जी दादा ,छितन जी ,संतोष जी ,विषुण नेता जी,हीरा फौजी और कुछ अन्य लोगों ने निश्चय किया की इस परम्परा को इस वर्ष पुनर्जिवित करना है ।ऐसा ही हुआ भी .परन्तु आज ये सभी लोग इस कार्यक्रम के सफल समाप्ति के लिये चिंतित हैं । कारण जानकर आप हैरान हो जाएंगे कारण है शेष ग्रामीणों की निष्क्रियता जो उन्हें कीर्तन स्थल ठाकुरवारी तक नही ले जा पाता है । फलस्वरूप उपरोक्त नेतृत्वकर्ताओं के दिनचर्या को देखिये ,मेरे पिताजी समेत सभी लोग लगभग पूरी रात जागते हैं ,दिन को 2 से 3 घंटे सोने के बाद दैनिक क्रिया और फिर 2 से 3 घंटे विभिन्न सामान्य घरेलु कार्य करते हैं।।पुनः उन्हें जल्दी ठाकुरवारी पहूचना है।। क्योंकि लड़कियां अब थक चुकी होंगी । सुबह से वही लोग तो कैसे भी समय को आगे बढा रही हैं ।और बार बार उसी साउंड सिस्टम से बोल रही हैं "अहाँ सब जल्दी आबियौ ,हम सब बड़ी काल स अहाँ सब के बजा रहल छी " ।अतः वहां भी जल्दी पहुंचना है ।ऐसा नही है की कीर्तन का समय सारणी बनाकर समब्न्धित लोगों को बताया नही गया है की इतने बजे से इतने बजे आपको यहाँ आकर कीर्तन ।पर कलियुग है सो जिस काम से लोगों को प्रत्यक्ष लाभ नही मिले वो काम बेकार ।दो दिन पूर्व अच्छा खासा बारिश हुआ था ,खेतों में पर्याप्त हाल (नमी) है अतः मेरे पिताजी समेत बहुत लोग करीब 10 बजे खेतों में मुंग बाउग (बोने) करने गये ,अभी तक वापस नही लौटे हैं ।लगभग 2 बज रहा है लडकियाँ आपस मे अदला बदली कर के सुबह 6 से लगी हुई हैं । इसी बीच आज ज्ञात हुआ की कोई मिलन सरकार हैं सहसराम (बिरौल)के मात्र 200 ₹ भाड़ा लेते हैं एकदिन कीर्तन करने को बहुत सारे गाँव जैसे नेउरी ,मझौरा आदि गाँव में जाते हैं कीर्तन करने के लिए भाड़ा पर ।खैर अब सोचता हूँ की कहीं ये कहानी उसी मिथिलांचल का तो नही है जिसे मोदलता ,स्नेहलता ,विद्यापति ,मधुप जी का धरती माना जाता है ।